मुक्तिबोध और कामायनी

Authors

  • श्री गोपाल सिंह

Abstract

प्रगतिवादी काव्य धारा के प्रमुख स्तंभ मुक्तिबोध अपने आलोचना कर्म का आरंभ कामायनी से करते हैं जबकि उस दौर में कामायनी और छायावाद का विरोध करना तथा उसका मखौल उड़ाना प्रगतिवादी आलोचना कि एक सामान्य प्रवृत्ति बनती जा रही थी। कामायनी पर मुक्तिबोध की आलोचनात्मक कृति ‘कामायनी एक पुनर्विचार’ का प्रकाशन 1961 ई॰ में हुआ। कि कामायनी की व्याख्या और विश्लेषण उन्होंने आधुनिक संदर्भ में की है और इस प्रक्रिया में कामायनी के संबंध में अन्य समीक्षकों की मान्यताओं से काफी हटकर अनेक नई स्थापनाएं मुक्तिबोध करते हैं। उदाहरण के लिए कामायनी को ध्वस्त होते सामंतवादी प्रवृत्तियों के प्रतीक रूप में देखना, कामायनी की व्याख्या एक भाववादी रचना के रूप में करना, कामायनी को पूँजीवादी व्यक्तिवाद से जोड़ना तथा प्रसाद के अभिमत से पृथक कामायनी को वैदिक इतिहास न मानकर उसकी व्याख्या फैंटेसी के रूप में करना इत्यादि। लेकिन मुक्तिबोध की समस्या यह है कि वह एक आध्यात्मिक कृति का मूल्यांकन निरी भौतिकवादी वैचारिकी के आधार पर करते हैं। और अपनी मार्क्सवादी विचारधारा को त्रुटि रहित और अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। यह सत्य है कि मार्क्सवाद ने मानवीय समता और मानव हितों को सर्वोपरि रखा किंतु इस विचारधारा की भी अपनी सीमाएं हैं। अंततः हम कह सकते हैं कि कामायनी के पुनर्मूल्यांकन की जिस परंपरा का आरंभ मुक्तिबोध ने किया वह कामायनी की समीक्षा को एक नई दिशा प्रदान करती है।
बीज शब्द - अभेदानुभूतिशीलता, अद्वैतवाद, प्रगतिशील, वर्गभेद, आत्मपरक काव्य, भौतिकवादी वैचारिकी

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Published

31-10-2024

How to Cite

श्री गोपाल सिंह. (2024). मुक्तिबोध और कामायनी. Research Stream (eISSN 3049-2610), 1(1), 12–15. Retrieved from https://journalresearchstream.ijarms.org/index.php/rs/article/view/29

Issue

Section

Research Paper